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कविता

पहला प्रेम

विशाल श्रीवास्तव


जब हम कहते हैं एक शब्द - पहला प्रेम
तो यह बड़ा बेईमान शब्द लगता है पहली बार में
अपनी मासूमियत की आड़ में
छिपाए रहता है दूसरे प्रेम की पूरी गुंजाइश
 
पहला प्रेम रेंगता है हमारे स्नायुओं में
किसी बदमाश कीड़े की तरह
इसमें पड़कर हम सबसे ज्यादा सुखी होते हैं
यही देता है हमको सबसे ज्यादा दुख
पहला प्रेम ही सिखाता है बोलना पहला झूठ
तभी हम सीखते हैं पहली बार धोखा देना
सबसे ज्यादा डर इसी में लगता है
इसी की वजह से बेवजह चुहचुहाता है माथा
बताता हुआ हमें पसीने का असली स्वाद
तभी पहली बार महसूस होता है हमें 
कि कुछ है जो हमारी छाती की एक ओर 
धड़कता निरंतर हमें रखता हुआ जिंदा
 
कितना रहस्यमय शब्द है पहला प्रेम
कई कई बार प्रेम कर चुकने के बाद भी
हम ज्यादा कुछ नहीं जानते इसके बारे में
यह तंग कस्बों की हवा का स्थायी तत्व है
जहाँ यह सँकरी गलियों के साथ सटे दरवाजों खिड़कियों के बीच
पनपता और बसता रहता है चुपचाप
फिर शीशे की तरह टूटता है अचानक
अपनी महीन किरचों के साथ
बना रहता है बाशिंदों की त्वचा में
उनके जीवन को टीसता लगातार
 
डूबकर प्रेम करते हुए ही हम अघाते हैं पहले प्रेम में
जल्दी से जल्दी जानना चाहते हैं सारे नियम इसके
पता चलते ही सोचते हैं बेईमानी के अभिनव तरीके
शब्दों से पहले तो हम ही बेईमान बन जाते हैं
भाषा तो अपनी जरूरत के हिसाब से बस
कातती रहती है शब्दों के लिए कपास
 

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